Saturday, 5 January 2013

सपन न लौटे a poem of udaibhan mishra

सपन न लौटे
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देर  बहुत हो गयी
सुबह के गए अभी तक
सपन न लौटे

जाने  क्या है बात
दाल में कुछ काला है
   शायद उल्कापात कहीं होने वाला  है
घबरायीं हैं  सभी दिशाएँ
दुबकी
चुप हैं
मातम का गहरा पहरा है
किसी मनौती की छौनी सी
बेबस द्रवित उदास धरा है
ऐसे में
मेरे ये सपन लाडले
जाने किन पहाड़ियों  चट्टानों से
लड़ते होंगे
किन  जलते रेगिस्तानों में 
जलते होंगे
किन बहकी लहरों  में 
उठते होंगे गिरते होंगे
जाने किधर भटकते होंगे
उड़ते होंगे
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भला कहीं कोई ऐसा भी
जो मेरी  कुछ मदद कर  सके
जाए ढूंढे देखे
मेरे सपन कहाँ हैं
और जहां हों
वहाँ पहुँच  कर
कह दे  उनसे
उनका पिता  वहाँ
चौखट  पर दिए संजोये
विजय  संदेशा  सुनने  की इच्छा  से 
विह्वल 
उनकी  राहें  जोह रहा  है    

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