Monday 30 July 2012

poem of udaibhan mishra

मेरा अनुभूत सत्य आपका भी अनुभूत सत्य हो कोई  जरूरी नहीं, फिर भी  मेंरे सत्य को अगर आप सत्य  मानने  से इन्कार  करेंगे तो  मुझे  लगेगा  आप  मेरे साथ न्याय नहीं  कर रहें हें.जल  के ऊपर  तैरता हुवा हिम  ऊपर जितना दिखाई पड़ता है वह उतना ही नहीं होता,वह तो संपूर्ण  का मात्र दसवाँ हिस्सा होता है. इस लिए सत्य ऊपर  का कुछ और भीतर का कुछ और होता है . जो मेरा  परिवेश है , उससे अलग हट कर भी  या बाहर भी एक संसार  है  जो इस दृश्यमान संसार से  जुड़ता हुआ  भी नहीं जुडा हुआ है ,जब इस भीतर के संसार के यथार्थ से मैं जुड़ता हूँ तो  सहसा सब कुछ  मेरे लिए  बदल  जाता है . फूल ,रंग ,धूप , हवा ,-सबके अर्थ वे नहीं रह  जाते जो साधारण स्थिति में साधारण  व्यक्ति के लिए होते हें . प्रत्यक्ष और दृश्यमान झूठा पड़ जाता है और जो प्रत्यक्ष नहीं है , जो कहीं दिखाई नहीं पड़ता  वह सहसा सत्य उठता है. पीले फूलों वाला मौसम , बसंत का मौसम न हो कर षड्यंत्र  और घृणा का मौसम हो जाता है परिवेश एक भयानक जंगल  में  बदल जाता है और जगह  जगह झाड़ियों  में दुबके , छिपे  शेर  और जंगली खूंखार जानवर  दिखाई पड़ने लगते हें./  इस संक्षिप्त संकेत के साथ  प्रस्तुत है मेरी एक कविता----------------------------------------------------------
आग  के पहाड़ पर
बैठा हुआ है  देश
और मेरे मित्र
मूर्खों की जय - जयकार  कर रहे हें

मित्र
जिन्होंने पाए हें 
बेहतरीन  दिमाग
खुली आँखें
मज़बूत  हाथ
वे  कहीं न  कहीं
या तो
किसी लाक्षागृह में
 कैद  हें
या
किन्ही लाक्षा गृहों का
निर्माण कर रहे  हें

आश्रम के हिनहिनाते अश्व
कुलांचें  भरते  मृग शावक
फुदकती चिड़ियाएँ
लहरती घासें
लताएँ
सभी की सभी
उपज हें
एक माया  की

ऋषि
जो सक्षम  हें
आश्रम का भक्षण  कर  के भी
आश्रम को
आश्रम सा दिखाने में
 उनके आतंक से
काँप रहा  है  सारा जंगल
और मेरे  मित्र
जो  इस सदी के गर्व हें
हां दुर्भाग्य
वे भी खिचते चले जा रहे  हें 
उसी आश्रम की ओर
----------------------------------शेष अगले  पुसर  में  

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