Wednesday, 30 November 2011

after coming back from a literary meeting

मुझे यह देख कर हैरानी होती है  लोग हिन्दी में अगंभीर हो कर बोलते हैं   ..कभी कभी विषय  से इतना हट जाते हैं  कहीं  का ईंट  कहीं का रोड़ा  वाली  कहावत चरितार्थ  होने लगती  है आज  जब कविता नयी कविता से बाहर  निकल कर उत्तर आधुनिकता   की कविता बन रही है , उस समय अन्वय और शब्दार्थ से कविता में अलंकार खोजना या संयोजना की  परख करना हास्यास्पद  नहीं  तो और क्या है ,समारोह  से लौटने  के बाद मैंने एक कविता  लिखी थी जिससे  मेरी प्रतिक्रया  का कुछ आभास  मिलेगा 


उनके  मन में
जो भी आयेगा
कहेंगे ,

मंच मिला है उन्हें
दहेंगे ,
पढ़ने  से रिश्ता
कम
बोलने से ज्यादा है
उनका
दशकों  पुरानी
कसौटी  पर
कविता  तुम्हे
कसेंगे
कविता घबराना मत
वे आलोचक हैं
पूज्य  हैं
उन्हें  प्रणाम करो

--------------उदयभान मिश्र

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