नया गीत
जब मैं 'नया गीत' शब्द कहता हूँ तो इसे 'नयी कविता' के वजन पर नहीं ले रहा, यह बात मैं पहले ही साफ कर देना चाहता हूँ | कोई भी कला-आन्दोलन परिवर्तन और संक्रांत चेतना से सम्बद्ध होता हैं | कुछ एसी परिस्थितियां कलाकार कवि के इर्द गिर्द थी, कुछ ऐसी उठती गिरती लहरे थी, जिनमे कविमन डूब-उतरा रहा था, कुछ ऐसे छिलके थे जो उतर चढ़ रहे थे, जो कलाकार के व्यक्तित्व को कभी बेदर्द और कभी पर्दानशीन कर रहे थे जिससे कवि कविता की स्वीकृत परम्परागत शर्तो और मर्यादाओं को छोड़कर अपनी अनुभूतियों को एक नये लहजे, एक नये अंदाज में कहने लगा था, जिसे कहने वालो ने कभी प्रयोगवादी कविता कहा था, जो बाद को नई कविता कही जाने लगी |
पहले की कविता लीजिये और आज की एक सफल नयी कविता लीजिये, दोनों का अंतर, अनुभूति और बोध के स्तर पर साफ दीख जायेगा | 'नयी कविता' नाम से पुकारी जानेवाली कविता अपने बोध और अनुभूति के परिवर्तन कोण और भिन्न चेतना-स्तरों के कारण पुरानी कविता से आसानी से अलग हो जाती है | यही शर्ते, 'नया गीत' के साथ भी हैं | इसके भी गुण नितांत नयी कविता के गुण है | अत: 'नया गीत' जैसे शब्द की सार्थकता 'नयी कविता' के अभिन्न अंग के रूप में, सामने आने में है | नयी कविता के समानांतर या उससे भिन्न उसका कोई विभाजन उचित नहीं जान पड़ता |
जो नयी कविता लय को ही अनिवार्य शर्त मानकर अपने लिए रूढबद्ध संगीत से अलग हट कर एक मुक्त संगीत को जन्म देती है वह अपनी गेयता और लयात्मकता के आधिक्य के कारण 'नया गीत' की संज्ञा पाने की अधिकारिणी होती है | केदारनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, केदार नाथ अग्रवाल या रामदरश मिश्र के गीत जिन्हें 'नया गीत' के नाम से मैं पुकारता हूँ, सचाई यह है की वे 'नयी कविता' के अंतर्गत आते हैं और उनके जन्म के लिए वे ही परिस्थितिया और वे ही बोध जिम्मेदार हैं जो 'प्रयोगवाद' या 'नयी कविता' के लिए भी है | शब्द चमत्कार और रूपगत अटपटे प्रयोगों के बल पर कवि सम्मेलनी कवि जब अपने गीतों को 'नव गीत' के नाम से पेश करते है तो लगता है 'आधुनिकता' और 'नयेपन' का स्वरूप और बोध उनकी पकड़ से कही बाहर हो गया है |
चूँकि नयी कविता का जन्म ही परिवर्तित समसामयिक जीवन और नये वातावरण के कारण हुआ है इसलिए 'नया गीत' आधुनिक से सीधे सम्बद्ध हैं 'आधुनिक' पुराने संदर्भ में रख कर उसका परीक्षण करती है, उसकी उपयोगिता पर शान चढाती है, और मूल्यों से नए मूल्यों को निकालती है | कहना न होगा की 'परम्परा की खोज' का कार्य नया गीत कर रहा है | लोकधुनों की ओर मुड़ना नये गीत का अपनी परम्परा की ओर मुड़ना है | जन गीतों की परम्परा की खोज नये गीत का लक्ष्य है | यह बात कसरत करके (नवगीत) लिखने वाले कवि सम्मेलनी कवि नहीं समझ पा रहे हैं| काश! उन्हें निराला, केदार अग्रवाल, ठाकुर प्रसाद सिंह जैसे कवियों के ऐतिहासिक कार्य का महत्व मालूम हो सकता! आज के जटिल और संकटग्रस्त वर्तमान के बीच भी गति की सम्भावना है और सदा सदा अक्षुण है, फिर भी 'गीत' आज की समग्र काव्याभिव्यक्ति का स्थान नहीं ले सकता | गीत एक मन: स्थिति विशेष के किसी विशिष्ट क्षण को उसकी अधिकतम तीव्रता में व्यक्त करता है | इसीलिए गीत में स्फीति के लिए गुंजाइश नहीं होती | प्रभाव पर भी कवि की दृष्टि नहीं होती, सिर्फ दृष्टि होती है अभिव्यक्ति की सम्पूर्णता पर | कवि अपने मनोवेग को पूर्ण निष्ठा के साथ उतनी ही पंक्तियों में व्यक्त करता है जितनी पंक्तिया उस अभिव्यक्ति के लिए अत्यंत अनिवार्य होती हैं| किसी लम्बी कविता या कविता में कवि की दृष्टि अंतिम रूप से 'प्रभाव' पर होती है 'समग्रता का प्रभाव' ही वहा कवि-समर्थ की कसौटी बनता है| 'विनय पत्रिका' के किसी पद को उसकी एकाग्रता तन्मयता, और रागात्मकता के कम या आधिक्य से जांचेंगे जबकि 'मानस' को उसकी व्यापकता, प्रभावकारिता, कल्याणकारिता आदि की कसौटी पर कसेंगे 'नयी कविता' और 'नया गीत' समान परिस्थितियों, और समान सन्दर्भ से जन्म के बाद भी उपयोगिता की दृष्टि से एक दूसरे से अलग व्यक्तित्व रखते हैं 'नयी कविता' नये गीत का स्थान नहीं ले सकती और न नया गीत नयी कविता का | फिर भी दोनों अभिन्न है| नया गीत, नयी कविता ही है, उससे स्वतंत्र कोई विधा नहीं और 'नए गीतों का कोई भी संकलन निकालना, सिर्फ नयी कविता की लयात्मक क्षमता, परिवर्तन गेयता और स्फूर्जित चेतना की एक झलक पाने का प्रयास मात्र होगा| नये गीत को नयी कविता से अलग हट कर उसे स्वतंत्र रूप में प्रतिष्ठित करने का कोई भी प्रयास उचित नहीं|
- उदयभान मिश्र
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