Thursday 31 January 2013

diary of udaibhan mishra

आज घर में रहा .कहीं बाहर नहीं गया. लिखने और प्रकाशन के बारे में लगातार सोचता रहा.  सोचने से कुछ नहीं होता ,प्रयत्न  करना  होगा . कल्पना  बुरी चीज़ नहीं है  लिन्तु उसे कर्म में बदलना  जरूरी  होता है .कविता में और बहुत कुछ  कहानी, निबंध  में कल्पना की अहम् भूमिका होती   है  किन्तु वहाँ भी अनुभूति  की गहनता , तथ्यों से साक्षात्कार और शोध की जरूरत होती है
जीवन में मुझे आज तक जो कुछ भी  यश मान सम्मान मिला है वह अपने आप  मिला है . आज जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो मुझे दिखाई दे रहा है कि कि
सी के लिए मैंने कोई प्रयत्न नहीं किया है  चीज़े अपने आप  मेरी गोद में गिरती गई हैं . अगर मैंने किसी चीज़  के लिए जोड़ तोड़ की है या प्रयत्न किया है तो वह
---
चीज़ मुझ से दूर भागती  गई है .

Sunday 27 January 2013

diary of uraibhan mishra

 ठंढ का प्रकोप बढ़ता ही जा रहा  है . रचना सृजन का भी एक समय  होता है . जरूरी नही  कि हर समय लिखा ही जाय साहित्य का जगत  बहुत क्रूर  होता है . रचनाओ का पहाड़ खडा करने वाले  लेखक को साहित्य देवता पल भर में धूल और  की तरह हवा में उड़ा कर फेंक देते हैं और एकाध रचना के लेखक  को अपने मुकुट में लगा कर सदा सदा के लिए महत्वपूर्ण बना देते हैं. मात्र एक कहानी लिख कर ही कोई लेखक साहित्य में अपना स्थान बना लेता है और कोई  पोथा का पोथा लिख कर भी कहीं  स्थान नही बना पाता है .इधर दो एक महीनो से मैं कुछ नहीं लिख रहा  हूँ  क्यों ? मैं खुद नही जानता     

Friday 25 January 2013

Udai Bhan Mishra ka Prishtha: diary of udaibhab mishra

Udai Bhan Mishra ka Prishtha: diary of udaibhab mishra: कामाख्या  में पञ्च मकार  से  महामाया की  अर्चना होती है .पञ्च मकार अर्थात  मीन, मदिरा, मांस , मुद्रा और मैथुन . देवी की इस  आराधना पद्धति क...

diary of udaibhab mishra

कामाख्या  में पञ्च मकार  से  महामाया की  अर्चना होती है .पञ्च मकार अर्थात  मीन, मदिरा, मांस , मुद्रा और मैथुन . देवी की इस  आराधना पद्धति को  दार्शनिकों और साधकों ने  वाम मार्ग कह कर पुकारा है .इसके विपरीत वैष्णो देवी हैं  जो भैरवनाथ  को अपने भोज से इस लिए भगा देती हैं कि वह मांस और मदिरा की मांग  करता  है .इतना ही नहीं  उसका सर काट कर  दूर की पहाडी  पर फेंक देती हैं . 
प्रश्न है  कि एक साधक  जो कामाख्या  जाता रहा है वह सहसा वैष्णोदेवी की ओर  कैसे आकर्षित हो गया वहाँ जाने के लिए क्यों बेचैन  है . यह क्या है ? महामाया का खेल .एक ही महा शक्ति  के विभिन्न रूप .महा सरस्वती , वीणा बजातीं  तो महा लक्ष्मी कमल पुष्पों की सुगंधि विखेरती  तो महा काली  नर मुंडों की माला पहने  भय की अनुभूति  करातीं . इन विभिन्न रूपों में एक तत्व समान है  कि  सभी मानव का कल्याण ही करती हैं

Thursday 24 January 2013

DIARY OF UDAIBHAB NUSHRA

आज कल से कुछ ज्यादा ही ठंढ है .अख़बार में खबर है  कि लोग सर्दी  से मर रहे  हैं.  मुझे शहर में  कुछ काम है  किन्तु नहीं निकला . रजाई में घुसा हवा हूँ . कामाख्या वाम मार्ग का शक्तिपीठ है . मैं वहाँ जाता रहा हूँ , मगर वहाँ भी दक्षिण मार्गी  हो कर ही रहा . शाकाहारी भोजन - मांस , मदिरा से दूर........अब वैष्णोदेवी  की और मुडा हूँ  पिछले साल  वहाँ  गया था , फिर जाने की इच्छा  हो रही है .  कहाँ कामाख्या कहाँ वैष्णोदेवी , ऊपर से दोनों दो ध्रुव लगते हैं  मगर ऐसा है नहीं . दोनों ही एक ही परम शक्ति  के अलग अलग रूप हैं . दोनों ही आत्मा का उद्धार  करते हैं एक गरम एक शीतल . सूरज और चन्द्रमा , पिंगला  और इडा इस  शरीर  में ही हैं . गंगा मैं  नहाएये या जमुना में  सभी का कार्य  मॉल को शुद्ध करना है   

Sunday 13 January 2013

Udai Bhan Mishra ka Prishtha: diary of udaibhan mishra

Udai Bhan Mishra ka Prishtha: diary of udaibhan mishra: १३ जनवरी२०१३ रविवार -------------------------------- कल मकर संक्रांति का पर्व है . सूर्य की आराधना का दिन . सूर्य  के प्रति कृतज्ञता ज्ञ...

diary of udaibhan mishra

१३ जनवरी२०१३ रविवार
--------------------------------

कल मकर संक्रांति का पर्व है . सूर्य की आराधना का दिन . सूर्य  के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का दिन .  जीवन ,  जगत , और प्रकृति को ऊर्जावान बनाता और उन का पोषण करता है  सूर्य.  इसी लिए मकरसंक्रांति के दिन  हम विशेष  पूजा  करते हैं .उसकी कृपा से उत्पन्न अन्न, वनस्पति, चावल,  तिला,  गुड , अदरक  आदि  उसे समर्पित करते हैं . अर्घ्य, देते हैं .भारतीय जन-मानस उपकार करनेवाले के प्रति कृतज्ञता  ज्ञापित  करना अपना परम धर्म मानता है  . लोहड़ी , पोंगल सभी पर्व उसी के निमित्त आयोजित होते  हैं .

Saturday 5 January 2013

Udai Bhan Mishra ka Prishtha: सपन न लौटे a poem of udaibhan mishra

Udai Bhan Mishra ka Prishtha: सपन न लौटे a poem of udaibhan mishra: सपन न लौटे ----------------- देर  बहुत हो गयी सुबह के गए अभी तक सपन न लौटे जाने  क्या है बात दाल में कुछ काला है    शायद उ...

सपन न लौटे a poem of udaibhan mishra

सपन न लौटे
-----------------
देर  बहुत हो गयी
सुबह के गए अभी तक
सपन न लौटे

जाने  क्या है बात
दाल में कुछ काला है
   शायद उल्कापात कहीं होने वाला  है
घबरायीं हैं  सभी दिशाएँ
दुबकी
चुप हैं
मातम का गहरा पहरा है
किसी मनौती की छौनी सी
बेबस द्रवित उदास धरा है
ऐसे में
मेरे ये सपन लाडले
जाने किन पहाड़ियों  चट्टानों से
लड़ते होंगे
किन  जलते रेगिस्तानों में 
जलते होंगे
किन बहकी लहरों  में 
उठते होंगे गिरते होंगे
जाने किधर भटकते होंगे
उड़ते होंगे
--------------
--------------
भला कहीं कोई ऐसा भी
जो मेरी  कुछ मदद कर  सके
जाए ढूंढे देखे
मेरे सपन कहाँ हैं
और जहां हों
वहाँ पहुँच  कर
कह दे  उनसे
उनका पिता  वहाँ
चौखट  पर दिए संजोये
विजय  संदेशा  सुनने  की इच्छा  से 
विह्वल 
उनकी  राहें  जोह रहा  है